वांछित मन्त्र चुनें

यदयु॑क्था अरु॒षा रोहि॑ता॒ रथे॒ वात॑जूता वृष॒भस्ये॑व ते॒ रव॑:। आदि॑न्वसि व॒निनो॑ धू॒मके॑तु॒नाग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad ayukthā aruṣā rohitā rathe vātajūtā vṛṣabhasyeva te ravaḥ | ād invasi vanino dhūmaketunāgne sakhye mā riṣāmā vayaṁ tava ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। अयु॑क्थाः। अ॒रु॒षा। रोहि॑ता। रथे॑। वात॑ऽजूता। वृ॒ष॒भस्य॑ऽइव। ते॒। रवः॑। आत्। इ॒न्व॒सि॒। व॒निनः॑। धू॒मऽके॑तुना। अग्ने॑। स॒ख्ये। मा। रि॒षा॒म॒। व॒यम्। तव॑ ॥ १.९४.१०

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:94» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:31» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:10


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब शिल्पी और भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश किया है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) समस्त शिल्पव्यवहार के ज्ञान देनेवाले क्रियाचतुर विद्वन् ! जिस कारण आप (यत्) जो कि (ते) आपके वा इस अग्नि के (वृषभस्येव) पदार्थों के ले जानेहारे बलवान् बैल के समान वा (वातजूता) पवन के वेग के समान वेगयुक्त (अरुषा) सीधे स्वभाव (रोहिता) दृढ़ बल आदियुक्त घोड़े (रथे) विमान आदि यानों में जोड़ने के योग्य हैं, उनको (अयुक्थाः) जुड़वाते हैं वा यह भौतिक अग्नि जुड़वाता है, उस रथ से निकला जो (रवः) शब्द उसके साथ वर्त्तमान (धूमकेतुना) जिसमें धूम ही पताका है उस रथ से सब व्यवहारों को (इन्वसि) व्याप्त होते हो वा यह भौतिक अग्नि उक्त प्रकार से व्यवहारों को व्याप्त होता है, इससे (आत्) पीछे (वनिनः) जिनको अच्छे विभाग वा सूर्यकिरणों का सम्बन्ध है (तव) उन आपके वा जिस भौतिक अग्नि को किरणों का सम्बन्ध है उसके (सख्ये) मित्रपन में (वयम्) हम लोग (मा, रिषाम) पीड़ित न हों ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। जिससे शिल्पी और भौतिक अग्नि सर्वहित करनेवाले कामों को सिद्ध कर सकते हैं, उससे विमान आदि यानों की संभावना करने को योग्य हैं ॥ १० ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ शिल्प्यग्निगुणा उपदिश्यन्ते ।

अन्वय:

हे अग्ने विद्वन् यतस्त्वं यद्यौ ते तवास्य वृषभस्येव वातजूता अरुषा रोहिताश्वौ रथे योक्तुमर्हौ स्तस्तावयुक्था योजयसि योजयति वा तज्जन्यो यो रवस्तेन सह वर्त्तमानेन धूमकेतुना रथेन सर्वान् व्यवहारानिन्वसि व्याप्नोषि व्याप्नोति वा तस्मादादथ वनिनस्तवास्य वा सख्ये वयं मा रिषाम ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यौ (अयुक्थाः) योजयसि (अरुषा) अहिंसकावश्वौ (रोहिता) दृढबलादिगुणोपेतौ। अत्रोभयत्र द्विवचनस्याकारादेशः। (रथे) विमानादौ याने (वातजूता) वायुवद्वेगौ। अत्राप्याकारादेशः। (वृषभस्येव) यथा वोढुर्बलीवर्दस्य तथा (ते) तवैतस्य वा (रवः) ध्वनिः (आत्) अनन्तरे (इन्वसि) व्याप्नोषि व्याप्नोति वा (वनिनः) वनस्य संविभागस्य रश्मीनां वा प्रशस्तः सम्बन्धो विद्यते यस्य तस्य। अत्र सम्बन्धार्थ इतिः। (धूमकेतुना) धूमः केतुर्ध्वजावद्यस्मिन्रथे तेन (अग्ने) (सख्ये०) इति पूर्ववत् ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। यस्माच्छिल्प्यग्निर्वा सर्वहितानि कार्याणि कर्त्तुं शक्नोति तस्माद्विमानादियानं संभावयितुं योग्योऽस्ति ॥ १० ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व उपमालंकार आहेत. ज्यामुळे शिल्पी (कारागीर) व भौतिक अग्नी सर्व हितकारक काम सिद्ध करू शकतात त्याद्वारे विमान इत्यादी याने बनविण्याचे अनुमान काढता येते. ॥ १० ॥